भूमिका
भारतीय समाज में मृत्यु के पश्चात किए जाने वाले धार्मिक और सामाजिक कार्यों का एक विशेष स्थान है। इन्हीं में से एक परंपरा है मृत्यु भोज (Mrityu Bhoj)। यह एक ऐसी प्रथा है जिसमें मृतक के देहांत के अधिकतर 13वें दिन या उससे आगे बड़े स्तर पर भोजन का आयोजन किया जाता है, जिसमें रिश्तेदारों, मित्रों और गांव-समाज के लोगों को आमंत्रित किया जाता है।
हालांकि मृत्यु भोज की परंपरा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है, लेकिन आज के आधुनिक समाज में यह बहस का विषय बन गई है कि यह वास्तव में आवश्यक है या सिर्फ एक सामाजिक बोझ। आइए विस्तार से समझते हैं मृत्यु भोज क्या है, इसका इतिहास, उद्देश्य, इसके लाभ और हानियां, तथा आज के समय में इसकी प्रासंगिकता।
मृत्यु भोज क्या है?
मृत्यु भोज एक सामाजिक और धार्मिक आयोजन है जो किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद किया जाता है। इसमें मृतक की आत्मा की शांति के लिए पूजा-पाठ और फिर बड़े स्तर पर भोजन वितरण किया जाता है। यह भोज आमतौर पर 10वें, 11वें, 12वें, 13वें या 16वें दिन किया जाता है। कुछ स्थानों पर यह भोज एक महीने या एक वर्ष बाद भी किया जाता है।
मृत्यु भोज का उद्देश्य
मूल रूप से मृत्यु भोज के पीछे धार्मिक और आध्यात्मिक उद्देश्य थे, जैसे:
- पितृ तर्पण और श्राद्ध: मृतक की आत्मा को शांति प्रदान करने के लिए विशेष पूजा और भोजन अर्पण करना।
- समाज को सूचित करना: समाज और रिश्तेदारों को एकत्र कर मृतक को श्रद्धांजलि देना।
- पुनः सामाजिकता की शुरुआत: शोक के दिनों के बाद परिवार को समाज में पुनः स्थापित करना।
लेकिन समय के साथ यह परंपरा एक सामाजिक दिखावे और आर्थिक बोझ में बदल गई।

मृत्यु भोज का इतिहास
मृत्यु भोज की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। वैदिक काल में भी पिंडदान, तर्पण और श्राद्ध की परंपरा थी, लेकिन भोज के रूप में बड़े स्तर पर आयोजन नहीं होता था। बाद में यह प्रथा समाज में एक अनिवार्य कर्तव्य के रूप में स्थापित हो गई, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में।
धार्मिक ग्रंथों में भी यह बताया गया है कि मृतक की आत्मा की तृप्ति के लिए भोज और दान पुण्य का आयोजन किया जाना चाहिए। लेकिन यह तब किया जाता था जब परिवार के पास साधन हों।
मृत्यु भोज की वर्तमान स्थिति
आज के समय में मृत्यु भोज एक सामाजिक रस्म बन चुका है, जिसे करना समाज में ‘प्रतिष्ठा’ से जोड़ा जाता है। इसके परिणामस्वरूप:
- आर्थिक बोझ: गरीब और मध्यम वर्गीय परिवार भी कर्ज लेकर मृत्यु भोज कराते हैं।
- समाज का दबाव: अगर कोई परिवार भोज नहीं कराता, तो उसे सामाजिक आलोचना का सामना करना पड़ता है।
- दिखावा और प्रतिस्पर्धा: अब यह परंपरा सेवा से ज्यादा दिखावे का साधन बन गई है।
मृत्यु भोज के दुष्परिणाम
- आर्थिक नुकसान: हजारों से लाखों रुपये तक खर्च किया जाता है, जो कई परिवारों के लिए अत्यधिक बोझ साबित होता है।
- सामाजिक असमानता: गरीब वर्ग पर यह परंपरा एक दबाव बन जाती है, जिससे वे अपनी आवश्यक ज़रूरतों को छोड़कर भोज कराते हैं।
- अन्य धार्मिक कार्यों में बाधा: कभी-कभी भोज पर इतना अधिक ध्यान होता है कि मुख्य धार्मिक क्रियाएं उपेक्षित रह जाती हैं।
- भोजन की बर्बादी: अधिकांश स्थानों पर भोजन का अत्यधिक अपव्यय होता है।
मृत्यु भोज के पक्ष में तर्क
- परंपरा और संस्कृति: कई लोग मानते हैं कि यह हमारी संस्कृति का हिस्सा है और इसे निभाना अनिवार्य है।
- मानवता और सेवा का भाव: कुछ लोग इसे समाज को सेवा देने और सभी को एक साथ जोड़ने का माध्यम मानते हैं।
- श्रद्धांजलि का रूप: यह मृतक के प्रति सम्मान व्यक्त करने का एक तरीका है।
मृत्यु भोज के विरोध में तर्क
- अनावश्यक खर्च: यह परंपरा अब अपने मूल उद्देश्य से भटक गई है और केवल सामाजिक दबाव बनकर रह गई है।
- कर्ज और गरीबी: खासकर गरीब तबके के लोग कर्ज लेकर भोज करते हैं, जिससे वे वर्षों तक आर्थिक संकट में रहते हैं।
- धार्मिक विकृति: भोज को धर्म और मोक्ष से जोड़ दिया गया है, जो शास्त्र सम्मत नहीं है।
कानून और सामाजिक संगठन की भूमिका
कुछ राज्यों में स्थानीय प्रशासन और सामाजिक संगठनों द्वारा मृत्यु भोज पर रोक लगाने या सीमित करने के प्रयास किए गए हैं। जैसे:
- राजस्थान में कुछ गांवों ने मृत्यु भोज पर स्वयं रोक लगाने की सामूहिक घोषणा की है।
- उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों में पंचायतों ने मृत्यु भोज को सीमित करने के लिए दिशानिर्देश जारी किए हैं।
इसके अलावा कई NGO और सामाजिक कार्यकर्ता इस परंपरा के खिलाफ जागरूकता अभियान चला रहे हैं, जिससे लोगों को समझाया जा सके कि यह अंधविश्वास नहीं बल्कि समाज के बोझ की तरह बन चुका है।

समाधान और सुझाव
- जागरूकता फैलाना: लोगों को मृत्यु भोज की वास्तविकता और उसके दुष्परिणामों के बारे में बताया जाए।
- सरल श्राद्ध विधि को अपनाना: सीमित संसाधनों में पूजा और तर्पण कर सकते हैं, भोज अनिवार्य नहीं है।
- सामाजिक एकजुटता: समाज को चाहिए कि वह मृत्यु भोज को अनिवार्य न समझे और बिना भोज के परिवारों को भी समान सम्मान दे।
- धार्मिक मार्गदर्शन: पंडितों और धर्मगुरुओं को भी चाहिए कि वे मृत्यु भोज की आवश्यकता को स्पष्ट करें और दिखावे से बचने की सलाह दें।
निष्कर्ष
मृत्यु भोज एक प्राचीन परंपरा है जिसे समय के साथ अत्यधिक बोझिल और खर्चीला बना दिया गया है। यह परंपरा आज समाज में आर्थिक, सामाजिक और भावनात्मक तनाव का कारण बन गई है। आवश्यकता इस बात की है कि समाज इस परंपरा को समझदारी से निभाए, इसके पीछे के उद्देश्य को जाने और दिखावे से हटकर इसे सरल, सस्ते और सम्मानजनक तरीके से पूरा करे।
मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए दिखावा नहीं, सच्ची श्रद्धा और सेवा की आवश्यकता है।